कविता शीर्षक- पिता ( लेखिका - कुदसिया जमीर ) | Aaj Sahitya
कविता शीर्षक - पिता
पिता
एक लफ़्ज़
बहुत सख़्त सा..
एक तस्वीर..
चट्टान सी..
एक आवाज़!
कभी बहुत नर्म, कभी बहुत कठोर सी..
दिल माँ की मानिंद
मगर
आँखों से झलकती बेगानारवी..
अक्सर सोचती हूँ!
ख़ुदा की कारसाज़ी पर
बड़ा जादूगर है वो..
कितने अजीब रँग भरे हैं
तमाम कायनात में!
अगर नहीं होती पिता की तस्वीर ऐसी
तो कहाँ हम जान पाते,
कि फलदार दरख़्त
इतने झुके क्यूँ होते हैं!
चिलचिलाती धूप की तपिश सहकर
साया देने का हुनर
इनमें आया कहाँ से?
ऐसे ही तो थे मेरे पिता
बहुत सख़्त, चट्टान की मानिंद...
मगर...
रो पड़े थे बच्चों की तरह
मुझे रुख़सत करते वक़्त..
तभी समझ पाई,
धूप की तपिश में
इसलिए जलते हैं पिता
कि ,जब ये जलेंगे तो,
इनके पसीने की बूंदों से
इनके घर में रोशनी होगी...
लेखिका - क़ुदसिया ज़मीर, प्रयागराज
पिता..एक सुंदर रचना, उद्वेलित करती है मन, शुभकामनाएं।
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