कविता ( स्त्री ) : गुंजन गुप्ता । आज साहित्य
स्त्री
लोग पूजते देवी को
पूजन अर्चन करते आरती
ध्वजा नारियल भोग लगाते
श्रद्धा से नतमस्तक होते॥
एकाकी युवती देख असुर
नरभक्षी बन जाते हैं
लात मारते गृहलक्ष्मी को
नवकलियों को अपना शिकार बनाते॥
पापी और दुराचारी को
स्त्री अब ललकार रही है
नौ देवी का रूप धार कर
पुरुषों को दुत्कार रही है॥
एक सिय को जिसने छीना
बार-बार वध उसका होता
राम नहीं हैं इस युग में तो क्या
स्त्री ही खुद को तार रही है॥
स्त्री बसती देवी रूप में
बिन स्त्री है यज्ञ अधूरा
स्त्री शक्ति स्वरूपा भी है
स्त्री ही घर की मान है॥
स्त्री अबला कोमलांगी है
पर वो अब लाचार नहीं
अपना रण वह स्वयं जीतती
महाकाली रणचण्डी है॥
लेखिका : गुंजन गुप्ता
Post a Comment