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पर्व बने नर्क ~ हरिओम ' भारतीय ' बरौर । आज साहित्य

 

शीर्षक - पर्व बने नर्क


अरमान असीमित अंतर्मन में, अबकी अंधियार भगाऊँगा ।

गाँव , मोहल्ले , चौबारों में , घी के दिए जलाऊंगा ।

पर सत्य नही है सौ प्रतिशत, अरमान सभी के पूरे हों ।

मंहगाई में आग लगी तो, कैसे दिपा मनाऊंगा ।


तन्मयता तन की तन-तन, तड़-तड़ भूमिलीन हो जाती हैं ।

इच्छायें मन में रह-रहकर, संकीर्ण बनी अकुलाती हैं ।

पड़ी दरारें जेबों में अब, गरमाहट कोषों दूर रही ।

जब अर्थ नही सब व्यर्थ है बंधु, कैसे किसे बताऊंगा ।

महंगाई ---------------------------------------- मनाऊँगा ।


जख्म उखरते अंतर्मन में, और नमक भर जाता है ।

इच्छाओं का दमन देखकर, तन शोणित हो जाता है ।

परिवार नियोजन की खातिर, तन को जर्जर बन जाना है ।

बच्चों की मूढाग्रह सम्मुख, आलय शमशान बनाऊंगा ।

महंगाई ---------------------------------------- मनाऊँगा ।


जेब अर्थ से हीन रहे तो, कैसे दीप जलाऊँगा ।

देवकुलों को मिष्ठानों के, कैसे भोग लगाऊँगा ।

दीप नहीं मिष्ठान नहीं हैं, तो दीवाली अभिशापित है ।

दीप नहीं इस दीवाली में, केवल खून जलाऊँगा ।

महंगाई ---------------------------------------- मनाऊँगा ।


               लेखक - हरिओम "भारतीय" बरौर

                 

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