Kitabganj: किताबगंज के नाम से लिखने वाले कवि प्रशांत सागर की कविताएं।
हम इस पोस्ट में लेखक और कवि प्रशांत सागर की कुछ कविताएं लाए है जो सोशल मीडिया पर किताबगंज नाम से कविताएं लिखते है । प्रशांत सागर का जन्म 1992 में क्रिसमस की रात बिहार के एक छोटे गाँव रसलपुर में हुआ । पिता बिहार राजस्व सेवा में थे, सो बिहार झारखंड के अलग अलग शहरों में बचपन बीता । फिर आधे भारत की तरह इंजीनियरिंग की, और बीते भारत की तर्ज़ पर वकालत । पिता के रस्ते पर चलते हुए UPSC की परीक्षा पास की, और 2019 से भारतीय राजस्व सेवा में कार्यरत हैं । चुपचाप छुप कर लिखने का शौक़ है, सो ये किताब उसी शौक का नतीजा है ।
उनकी कविताएं पढ़े ।
वो चूम कर मुझे,
मेरे मन मे भरे-
इतिहास-समाज-राजनीति के विष
निकाल देती है।
वो चूम कर
होंठ मेरे
मुझे व्यक्ति से कवि
बना देती है।।
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ये दौड़ते-भागते बादल भी
बरसना नहीं भूलते
मेरे शहर पर।
देखो क्या क्या असर हुआ है
इन बादलों पर भी
इक तुम्हारे मेरे शहर में होने से।
_________________________मेरे रोके थोड़े रुकेगी,
प्रकृति का नियम है आखिर।
सुबह-शाम-बरसात
तुम्हारी याद-
सब नियम है प्रकृति के,
कब रोके
रुकें हैं आखिर।।
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दिनों ने कब का-
मार दिया होता,
ग़र
रातें पनाह न देतीं।।
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तुम मेरे लिए कविताएं नहीं करते,
तुम उसके लिए करते हो
जो लड़की
तुम मुझे समझते हो।।
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मुझे पूरी ज़िंदगी
लगा
मैं चाहता था
दूर हर किसी से-
बस खो जाना
तुमसे मिलकर मालूम हुआ
कि
मैं
बस चाहता था
ढूंढ लिया जाना।।
_________________________वो मशीन जो तुम्हें
बचाती भी है
और
कुचलती भी-
उसी मशीन में लगा
एक कील हूँ मैं-
तुम्हें निहारता असहाय होने का नाटक करता
तुम्हारे दुखों पर कविता लिखता-
पर मशीन से कभी
छिटक जाने की
हिम्मत न करता मैं
एक नौकरशाह कवि।।
_________________________कला खुद
कष्ट से पैदा हुई है।
इसलिए वो देगी
कष्ट
आपके
समाज को-
विचार को-
व्यवहार को।
जैसे प्रकाश देता है
कष्ट अंधकार को।।
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कवि आयेगा
उसे पूरा करने-
किसी अनोखी बात से
एक स्वयं-सम्पूर्ण-कालजयी
कविता
इसी इंतेज़ार में बैठी है
कई रात से।।
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स्कूलों में सवाल ये भी बचा है
कि
दुनिया के तमाम एकलव्यों को
उनके अंगूठे वो जो लौटा देंगे
तो
अर्जुनों
की रीढ़ की हड्डियां
वो किस धातु से बनाएंगे?
© फफूंद- प्रशांत सागर
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