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कवि प्रदीप कुमार सहारनपुर की रचना - लडखडाते हुए कदम | आज साहित्य


रचना शीर्षक - लड़खड़ाते हुए कदम
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जब बचपन में लड़ा था मैं
खुद ही अकेले खड़ा था मैं

गली-गली कंधों पर बोझ
लिए फिरा करता था मैं

बड़े हसीन ख्वाबों को देखता था मैं
अकेले ही तनहा रोया करता था मैं

पल पल को संवारा करता था मैं
आसपास के ताने सुना करता था मैं

खुद के आंसुओं से तलाब भरा करता था मैं
अपने आप से सवाल किया करता था मैं

बेबस जिंदगी से लड़ा करता था मैं
हर पल अपने आप से झगड़ता था मैं

तंगहाली गरीबी से सीखा करता था मैं
आईने की तरह बार-बार टूटा करता था मैं

बड़ा अजीब दौड़ रहा जिससे हर पल गुजरता था मैं
बत्तर हालातों में भी हौसला नहीं तोड़ा करता था मैं

लड़खड़ाते पाव से चलना सीखा था मैं
अब कैसे कह दूं हर कदम पर गिरा नहीं था मैं

- कवि प्रदीप कुमार सहारनपुर

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