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समाजवाद के कुलपति, आचार्य नरेंद्र देव - सूर्य कुमार

 

समाजवाद के कुलपति, आचार्य नरेंद्र देव

                

    चतुर्मुखी प्रतिभा के धनी, मार्क्सवादी दर्शन में हलन्त तथा अर्ध विराम लगाने की क्षमता रखने वाले, बौद्ध दर्शन पर विश्व प्रसिद्ध विशाल व्याख्या ग्रन्थ लिखने वाले, समाज को हर दृष्टिकोण से परखने एवं समझने में पूर्ण रूप से समक्ष, समाजवाद के जनक आचार्य नरेंद्र देव के ब्यक्तित्व पर प्रकाश डालना मेरे जैसे कार्यकर्ता के लिए अत्यंत कठिन एवं श्रम साध्य कार्य है फिर भी मैं उनकी इस 132 वीं जयंती पर भारतीय समाज तथा नई पीढ़ी के समक्ष वर्तमान के संदर्भ में उनके विचारों को प्रस्तुत करने का विनम्र प्रयास कर रहा हूँ। आचार्य के जीवन मूल्यों पर प्रकाश डालने के लिए मैं यदि श्रध्देय शिवमंगल सिंह सुमन द्वारा रचित कविता की कुछ पन्तियों का सहारा लूं तो शायद अनुचित नहीं होगा और मेरा काम कुछ आसान हो जायेगा। तो प्रस्तुत है यह पंक्तियां---

क्या हार में क्या जीत में,किंचित नहीं भयभीत मैं।

संघर्ष पथ में जो मिला,यह भी सही वह भी सही।।

यह हार एक विराम है,जीवन महा संग्राम है।

तिल तिल मिटूंगा, पर दया की भीख मांगूंगा नही।।

चाहें ह्रदय को ताप दो,चाहें मुझे अभिषाप दो ।

कुछ भी कहो कर्तब्य पथ से,किंतु भागूंगा नहीं ।।

वरदान मांगूंगा नहीं वरदान मांगूंगा नहीं ।।

   आज हमारे जीवन के हर क्षेत्र में तात्कालिकता ने अपना विशिष्ठ स्थान बना लिया है, इसके दूरगामी नतीजे क्या होंगे इसकी चिंता हमें नही रह गयी है। हमने अपने बहुमूल्य नैतिक मर्यादा, सांस्कृतिक मूल्यों, जो हमको विश्व में विशिष्ट पहचान प्रदान करते थे, को दर किनार कर दिया है।

   साधन और साध्य का पवित्रता से कोई रिश्ता नही रह गया है और यही नही हम लक्ष्य तक ऐन केन प्रकारेण पहुंच बनाने के प्रयास में भारतीय संस्कृति, राष्ट्रीयता, धर्म जो हमारी पहचान एवं विरासत है तथा जिनका सृजन सदियों के गहन मंथन तथा संघर्ष से हुआ था को अपने निहितार्थ के अनुसार परिभाषित करने का प्रयास कर रहे हैं। विभिन्नता में एकता स्थापित करने वाले सभी विशिष्ट सूत्रों को जो भारतीय समाज को विशिष्टता की श्रेणी तक पहुंचाते थे, को समाप्त करने की कोशिश कर रहे हैं।

  हमारे इस कृत्य से हमारे समाज का जितना नुकसान हो रहा है उससे ज्यादा क्षति उन घृणित तरीकों से हो रहा है जो इस प्रक्रिया में अपनायी जा रही है।ऐसे अवसाद ग्रन्थ संक्रमण काल में आचार्य जी जैसे मनीषी को स्मरण करना तथा उनके विचारों पर मंथन करना हमारा पुनीत कर्तब्य बन जाता है।

   आचार्य जी की मान्यता है कि ब्यवस्था मात्र सदोष है, सर्वथा निर्दोष निर्विकल्प है,परमार्थ है। लोक गतानुगतिक होता है, परमार्थ पूजक नही।

मुख्य रुप से धर्मों की शुद्धि प्रक्रिया ने साम्प्रदायिक पार्थक्य को अधिक गम्भीर बना दिया है जिसका आज राजनीति में दुरुपयोग हो रहा है।

   यह सच है कि वर्तमान जीवन की आवश्यकताओं की पूर्ति प्राचीन धर्म सम्प्रदायों से नही हो सकती। इसके लिए हमें नये जीवन दर्शन तथा नये प्रयत्न करने होते हैं। जिसमें निरंतरता अनिवार्य है और आने वाली समस्याओं का समाधान भी इसी में निहित है। 

     संस्कृति चित्त भूमि की खेती है, इसका कार्य चित्त को सुभाषित करना और उसको सुसंस्कृत करना है । जीवन और संस्कृत दोनों परिवर्तनशील है, स्थिति के बदलने पर दोनों परिवर्तन होता है। देश काल के भेद से विचार बदलते हैं, विस्वसों में परिवर्तन होता रहता है। इस परिवर्तन पर ही सामाजिक विकास का आधार टिका होता है। मानवीय मूल्यों तथा न्याय आधारित समतामूलक समाज की स्थापना समाजवाद की मुख्य उद्देश्य होने के नाते आज समाजवाद विश्व का युग धर्म बन चुका है। इसे आज सबको स्वीकार करना होगा क्योंकि यह मानव की चाह है।

 पर राष्ट्रीयता, जनतंत्र तथा समाजवाद एक दूसरे के लिए संजीवनी है इनका विकास परस्पर विकास दर पर निर्भर है। एक के बिना किसी एक कि स्थापना सम्भव नही।

   वैसे तो मनुष्य मात्र सब एक हैं, किंतु मानव अभिव्यक्ति देश काल मे भिन्न भिन्न प्रकार से होती है, यही राष्ट्रीयता है तथा यदि राष्ट्रीय भिन्नता भिन्न भिन्न भाषा, संस्कृति, आचार विचार तथा विस्वास आदि मनुष्य की विरासत है। इस राष्ट्रीय मिजाज के मुताविक मनुष्य जीवन और जगत के प्रति अपना दृष्टिकोण निर्धारित करता है। पर यह वर्जनशील नही।

    आचार्य जी की मतानुसार जनता ही सबसे बड़ी क्रांतिकारी शक्ति रही है और रहेगी भी पर जब तक जन जीवन किसी खास बदलाव के लिए स्पन्दित नही होगा ,वह सहयोग नही करेगा कोई भी क्रांति संभव नही है। स्वतंत्रता जन तथा जनतांत्रिक भावना मनुष्य की मौलिक प्रबृत्ति है, यह मानव की प्रबृत्ति की गहराइयों में मौजूद है और वह बारम्बार अपने को प्रकट करती रहती है। 

    मानव जाति के मन में इस भावना का प्रभाव इतना प्रबल है कि वह अधिनायकवादी शक्तियों को मजबूर कर देती है कि वे अपने अस्तित्व के लिए जनतांत्रिक बनने का दिखावा करें।

      अति महत्वपूर्ण बात यह है कि जहां बहुत से सामाजिक मूल्य दीर्घ कालीन होते हैं। इतिहास में कई बार उनकी उपयोगिता सिद्ध हो चुकी है वहीं आर्थिक संगठन के बदलने से नवीन उद्देश्यों एवं आकांक्षाओं का जन्म होता है। उसकी पूर्ति हेतु नये मूल्यों को स्वीकार करना पड़ता है और इन्हीं मूल्यों में राष्ट्र की प्रगति निहित होती है।

        जहां तक धर्म का प्रश्न है भारतीय सोंच के अनुसार मोक्ष तथा ईश्वर प्राप्ति के सारे रास्ते सही हैं। किसी भी पथ पर चल कर व्यक्ति मंजिल तक पहुंच सकता है। अतः समस्त धर्मावलम्बियों को अपने आस्थानुसार अपने पथ का अनुसरण करना चाहिए तथा दूसरों को मर्यादित तथा सम्मानित करना उनकी आस्थाओं को आदर भाव की दृष्टि से देखना ही धर्म है।और यही हमारे भारतीय धर्म की विशेषता है जो अन्यत्र दुर्लभ है और यही एकता में अनेकता का प्रभावी सूत्र है।

      राष्ट्रीयता, जनतंत्र, समाजवाद, भारतीय संस्कृति, धर्म आदि के बारे में आचार्य के विचारों को प्रस्तुत करते हुए मुझे आशा है कि पाठकगण इसका अध्ययन तथा मनन कर लाभ उठाएंगे। यही आचार्य को सच्ची श्रद्धांजलि होगी।


लेख:- सूर्य कुमार

देवग्राम,पयागपुर, बहराइच, उत्तर प्रदेश

(लेखक भारत यात्रा ट्रस्ट के ट्रस्टी, गांधी निष्ठ समाजवादी हैं)

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