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रचना बेटी पर - कुद्सिया जमीर । Aaj Sahitya

 

रचना शीर्षक- बेटी

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घर की ज़ीनत हैं मेरी बेटियां

घर की रौनक़ हैं मेरी बेटियां....

इनकी मुस्कुराहट में छिपा है मेरी तमाम ख़ुशियों का राज़..


ये खिलखिलाती हैं तो

खिल उठती हूँ मैं भी

 फूलों की तरह....


जीवन के झंझावातों को झेलते 

ग़म के सागर में डूबते -उतराते

क़दम -दर-क़दम ठोकरें खाते -खाते भी..

नहीं टूटा जीवन जीने का हौसला

नहीं रूठा आँखों का वो सपना....

जब शाम ढले थक -हारकर 

जीवन की ऊबड़ खाबड़ पगडंडियों से लड़खड़ाते हुए 

तूफ़ानों से लड़ते हुए अपना टूटा -थका शरीर लेकर घर लौटूँगी तो

 भूल जाऊँगी सारे दुःख..

जब कोई नहीं होगा छलकते अश्कों को पोंछने वाला..

तब मेरी बेटियां आकर लिपट जाएंगी मुझसे....

मेरी उदासी को ख़त्म कर देंगी अपनी मुस्कान से

अपनी खिलखिलाहट से

 जब कोई नहीं होगा अश्क पोंछने वाला तो समेट लेंगी मेरी अश्कों को

अपनी हथेलियों पर..

और भूल जाऊंगी मैं कितने कांटे चुभे जीवन की इस पगडण्डी पर चलते चलते....

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लेखिका- क़ुदसिया ज़मीर

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