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भूल जाना - मनोज मुंतशिर | Aaj Sahitya

सवाल एक छोटा सा था 

जिसके पीछे ये पूरी जिंदगी बर्बाद कर ली 

भुलाऊं किस तरह वो दोनों आंखें 

किताबों की तरह जो याद कर ली 

भूल जाना, 

भूल जाना कि एक लड़का था शायराना सा

कुछ तबीयत से काफ़िराना सा 

हंस के सब से मिलता-जुलता था 

पर उसके दिल का दरवाजा सिर्फ तुम्हारी दस्तकों पे खुलता था। 

भूल जाना, 

वो अजीब सा लड़का जो लाल पीली कपड़ों में गुजरता 

शक्ल सूरत तो बस यूं ही सी थी पर तुम्हारे लिए रोज बनता संवरता 

भूल जाना, 

वो कम पढ़ा लिखा था लड़का, जिसकी किताबों से कभी दोस्ती नहीं हुई 

पर तुम्हारी आंखें पढ़ने में उससे कभी गलती नहीं हुई 

भूल जाना, 

वो पागल सा लड़का जो खुद भूलने की आदत से परेशान था, बर्बाद था 

पर तुम्हारे हर कुर्ते का रंग उसे जबानी याद था

भूल जाना, 

कि वो गांव की मिट्टी की जाया 

जब तुम्हारे शहर आया 

तो बात-बात पर उसका दिल धड़क उठता 

और वो खेत खलिहान में पली उंगलियां तुम्हें छू लेती 

तो तुम्हारा बदन कच्चे आम के बगीचों जैसा महक उठता 

भूल जाना, 

वो जनवरी के सर्दियां, वो चाय के प्याले गुनगुने और वो कहानियां जो तुम ऐसे सुनती थी जैसे कोई बच्चा लोरियां सुने 

भूल जाना, 

क्योंकि मैं भूल चुका हूं 

मैं भूल चुका हूं वो शाम जब मैं सिर्फ तुमसे नहीं अपने आप से भी बिछड़ा था 

आज के बाद मेरा इंतजार मत करना ये सुनते ही मेरी घड़ी से वक्त गिर पड़ा था 


 

कुछ शाम के बाद क्या हुआ, मैं कहां गया, कैसे जिया, क्या किया तुमने पूछा नहीं मैंने बताया नहीं 


 

पर यह जान लो वो घड़ी से गिरा हुआ वक्त मुझे बुलाता रहा और मैंने उठाया नहीं 

खैर, कल और आज के बीच दुनिया बदल गई

अब इश्क़ में तड़पने की फुर्सत कहां 

आंसू बहाने की मोहलत कहां 

पर आज भी चाय की हर प्याली तुम्हारा इंतजार करती है 

ऐ मेरी दोस्त, मेरे दिल की तड़प, मेरी अधूरी आरजू तेरे हिस्से की शाम आज भी खाली गुजरती है ।



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