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कर्म - सर्वेश शर्मा | आज साहित्य


 कर्मो पर आधारित कविता, इंसान अपने कर्म कैसे किस तरह करता है

               शीर्षक   - कर्म

इंसान आज का करता है 

जग में कैसे कैसे कर्म

विष्य है मेरा,इसके वारे में,

वताना है मेरा धर्म


चंद रूपयों के लिये दरिंदे,

खून की होली खेलते

ऐसे लोगों का होता नही 

कोई दीन न कोई धर्म


कलियों को है नोचते,

मासूमियत को है चीरते

इन के दिलो  दिमाग में, 

नही होता जरा भी रहम


हवस के पुजारी वने,

 वहशी  वलात्कारी वने

लहुलुहान मासूमों के

 लवों पे,चीत्कारी जमें


वेटी ,वहनों के लिये,

इनके दिल में तरस नहीं

हब्शियों की दरिंदों की, 

पूरी होती हवस नहीं


भूल जाते है ये सभी,

इनसे ही इनकी पहचान है

इनके घर की वहन वेटी ही 

इन सबकी शान है


गिर गया जमीर इनका,

कोई कुछ लगता नहीं

लूटकर,नोचकर,भी,

इन का पेट भरता नहीं


दरिंदगी वहशियत की 

इनकी सीमा चरम है

लूट,मार,चोरी डकैती

,हत्या इनका धरम है


इंसां है ऐसे भी जहान में,

जो करते है ऐसे कर्म 

हाथ पलमें काट दें वो,

जो चाहें करना चीरहरण


 वहनें, वहु, वेटियां ही 

जिनके  घर का मान है

उन सबकी आन खातिर

 लुटाते अपनी जान है


ये ही नेकदिल,जां निसार 

इंसान की  पहचान है

इन पर ही  भारती मां को,

वेटा होने का मान है


दोनो वेटे हैं मां भारती के,

दोनो ही है पैदा हुऐ

दोनों के ही किये कर्म 

इक दूसरे से है जुदा हुऐ


कर्म नहीं करते कभी 

ये विचार है इनके अपने 

एक अच्छाई,तो दूजा वुराई

 में ही पूर्ण करता है सपने


एक चलता है शान से,

उससे सभी को प्यार है

दूसरा छुपाके मुखको 

फिरता, जगसे शर्मसार है


कर्म अच्छा यां वुरा,

इनके जीवन का आधार है

इन के कर्मो से ही इनकी, 

पहचान वरकरार है


कर्म नहीं,वदल सकते,

वो तो सदा करते है लोग

 विवेक विचार से कर्म

को वदल सकते है लोग


स्वरचित- सर्वेश शर्मा 

बठिंडा पंजाब

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