विपल्व : गुंजन गुप्ता । आज साहित्य
विपल्व
इन नग्न आँखों से
देखते हुए विप्लव को
कर रही हूँ महसूस
स्वयं को
असहाय सी
सर्पों सी फ़ुफ़कारती
नदियों की लहरों का
और
लहराती हुईं
उनकी धड़कनें
अपनी श्वासों के आरोह में
लील लेने को आतुर हैं
समग्र सृष्टि को
प्रकृति के कोप
के मध्य
संसाधनयुक्त मानव
बन चुका है मात्र
चीटियों सा
बहा जा रहा है
कीट-पतंगों की भाँति
कभी जो
बना बैठा था
खुद को प्रकृति का भोगी
हो गयी चूर
एक झटके में
उसके अहंकार की माला
खुद को स्वामी मान
भूल गया था
उसके धैर्य की सीमा को
नकार दिया था
उसके अस्तित्व को
और रह गया मात्र
कठपुतली बन कर!!
लेखिका : गुंजन गुप्ता
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